कैंसर के खिलाफ स्टेम सेल्स की जंग

आज देश में कैंसर पीडि़तों के लिये मौजूदा इलाज सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी तक ही सीमित रह गया है, लेकिन विदेशों में हुई शोधें और खोजें किस प्रकार नई राहें खोल रही हैं,आइए जानें, इस संदर्भ में कुछ बानगियां।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में कार्यरत भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ. खालिद शाह ने अपनी हाल की खोज में यह बात दर्ज की है कि ग्लायोब्लास्टोमा नामक ब्रेन कैंसर में जब टॉक्सिन बनाने वाली स्टेम सेल्स को प्रत्यारोपित किया गया, तब उन्होंने न केवल ट्यूमर सेल्स का सफाया किया बल्कि आसपास मौजूद स्वस्थ कोशिकाओं को भी किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया। यह जेनेटिकली मॉडीफाइड स्टेम सेल्स हैं, जो सिर्फ कैंसर सेल्स पर ही प्रभावी होती हैं।

टी-सेल्स का असर

हाल में 'नेचर बॉयोटेक्नोलॉजी' नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक लेख के अनुसार लिम्फेटिक ट्यूमर में जेनेटिकली मॉडीफाइड टी- सेल्स बहुत ज्यादा प्रभावी पायी गई हैं। ओन्टेरियो कैंसर इंस्टीट्यूट(कनाडा) के सेल बॉयोलॉजिस्ट डॉ. पैम ओहासी के अनुसार आप जितनी चाहें उतनी नई टी-सेल्स बनाकर कैंसर को मात दे सकते हैं। अमेरिका के मशहूर स्लोन कैटरिंग कैंसर सेंटर के डॉ. माइकल सडलेन के अनुसार एक्यूट लिम्फोब्लास्टिक ल्यूकीमिया (एक प्रकार का ब्लड कैैंसर) में जेनेटिकली मॉडीफाइड टी-सेल्स से लगभग कैंसर का सफाया किया जा सकता है।

नई खोज

अब टी सेल्स बनाने के लिए स्वस्थ दानदाता (डोनर) से भी ब्लड सैंपल लिया जा सकता है और इसमें उपर्युक्त परिवर्तन करके कैंसर के खिलाफ काम करने वाली टी सेल्स को बनाया जा सकता है।

मेटास्टेटिक ब्रेस्ट कैंसर का नया इलाज

यूरोपियन सोसायटी ऑफ मेडिकल ऑनकोलाजी की हाल में स्पेन में मेड्रिड, में संपन्न कांफ्रेंस में वाशिंगटन के डॉ. स्वैन ने अपने शोध-पत्र में खुलासा करते हुए कहा था कि परजेटा नामक दवा को मेटास्टेटिक ब्रेस्ट कैंसर में काफी प्रभावी पाया गया है। इस दवा के प्रभाव से मरीजों का औसतन जीवन 16 माह तक बढ़ गया है।

जबकि इससे पहले आयी हरसेप्टिन नामक दवा से जीवन अवधि दो माह ही बढ़ती थी। गौरतलब है कि यह इलाज इम्यूनोथेरेपी की एक विधा है।

नये जमाने की कीमो जेड एल 105

इंग्लैंड के वारविक विश्वविद्यालय में कार्यरत डॉ. इसोल्डा के अनुसार अब आईरीडियम नामक बहुमूल्य धातु से बनी कैंसर रोधी दवा आ चुकी है। यह दवा पुरानी कीमोथेरेपी से काफी प्रभावी है और इसके साइड इफेक्ट भी काफी कम हैं।

देश में मौजूदा डेन्ड्राइटिक सेल वैक्सीन

दुनिया भर में की गई शोधों और नये इलाज लाने में भारत का भी योगदान है। इस योगदान में मुख्यत: डेन्ड्राइटिक सेल्स वैक्सीन को शामिल किया गया है, जो अमेरिका के फूड एन्ड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए)द्वारा पहले से ही प्रोस्टेट कैंसर में अनुमति प्राप्त इलाज है। बहरहाल, डेन्ड्राइटिक सेल्स वैक्सीन का प्रयोग मुख्यत: ब्रेस्ट कैंसर, मस्तिष्क कैंसर, फैफड़ों का कैैंसर, त्वचा कैंसर और प्रोस्टेट कैंसर में किया जाता है।

विशेष सलाह

जांचों के जरिये ट्यूमर या कैंसर के पता चलने पर अपने सर्जन से डेन्ड्राइटिक सेल वैक्सीन पर चर्चा करें। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस वैक्सीन को बनाने में ट्यूमर (कैंसर सेल्स) की जरूरत पड़ती है। एक बार ट्यूमर को ऑपरेशन के जरिये हटा देने के बाद, जिंदगी भर के लिए डेन्ड्राइटिक सेल्स वैक्सीन का ऑप्शन (इलाज की विधा) खत्म हो जाता है। इसलिए अपने कैैंसर सर्जन से ऑपरेशन के तुरंत बाद ट्यूमर का सैंपल डेन्ड्राइटिक

सेल्स वैक्सीन बनाने के लिए भेजने का आग्रह करें।

(डॉ.बी.एस.राजपूत सीनियर स्टेम सेल्स ट्रांसप्लांट सर्जन)

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