लगभग 6 महीने से 18 वर्ष तक के हर 250 बच्चों या किशोरों में से एक बच्चा या किशोर किसी न किसी प्रकार की गठिया (अर्थराइटिस)से पीड़ित है। बच्चों को प्रभावित करने वाली गठिया लगभग 16 प्रकार की होती है, परन्तु इनमें से मुख्य रूप से जुवेनाइल र्यूमैटॉइड अर्थराइटिस, र्यूमैटिक अर्थराइटिस,इंट्रो-अर्थराइटिस, एक्यूट ट्रांजिएंट अर्थराइटिस, सेप्टिक अर्थराइटिस, ट्यूबरकुलर अर्थराइटिस आदि मुख्य रूप से बच्चों और किशोरों को प्रभावित करते हैं। इलाज द्वारा इन रोगों पर इस हद तक काबू पाना कि वह बच्चे की पढ़ाई या रोजमर्रा की जिंदगी में बाधा न बने अपने आप में एक चुनौती है।
जुवेनाइल र्यूमैटॉइड अर्थराइटिस
जुवेनाइल र्यूमैटॉइड अर्थराइटिस गठिया से प्रभावित लगभग 10 प्रतिशत बच्चों में पाया जाता है। हर 1000 बच्चों में से एक बच्चा इससे प्रभावित होता है। भारत में लगभग 15 लाख बच्चे इससे पीड़ित हैं। आम तौर पर यह अर्थराइटिस 16 वर्ष की आयु से पहले कभी भी हो सकता है। यह रोग शरीर के रोग-प्रतिरोधक तंत्र (इम्यून सिस्टम) में विकार आने से उत्पन्न होता है। लगभग 60 प्रतिशत प्रभावित बच्चों में इसका सीधा संबंध माइकोप्लाज्मा नामक जीवाणु से माना जाता है।
लक्षण
-एक या एक से अधिक जोड़ों में दर्द और सूजन का होना।
-बुखार आना।
-आंखों में सूजन और लालिमा का होना।
-उपर्युक्त लक्षण छह हफ्ते से लेकर तीन महीने तक कायम रह सकते हैं।
-रक्त में हीमोग्लोबिन का कम होना और व्हाइट ब्लड सेल्स ज्यादा पायी जाती हैं।
इलाज: यदि जुवेनाइल र्यूमैटॉइड अर्थराइटिस का विशेषज्ञ डॉक्टर द्वारा समय से इलाज कराया जाए, तो जोड़ों को क्षतिग्रस्त होने से बचाया जा सकता है। ज्यादातर बच्चों को सूजन की दवाओं के अतिरिक्त ‘डिजीज मॉडीफाइंग ड्रग्स भी देनी पड़ती हैं।
र्यूमैटिक अर्थराइटिस: र्यूमैटिक अर्थराइटिस की शुरुआत गला खराब करने वाले स्ट्रेप्टोकोक्कॅल नामक जीवाणुओं द्वारा होती है। इसलिए इसे पोस्ट-स्ट्रेप्टोकोक्कॅल अर्थराइटिस भी कहते हैं। अक्सर यह अर्थराइटिस र्यूमैटिक फीवर के साथ शुरू होती है और कभी-कभी इससे हृदय भी प्रभावित होता है, जिसे र्यूमैटिक हार्ट डिजीज के नाम से जाना जाता है। इस रोग की जांचों में ‘ए. एस. ओ. टाइटर’ का बढ़ा होना, ई. एस. आर. और सी. आर. पी. का बढ़ा होना पाया जाता है। इसमें 16 से 17 वर्ष की उम्र तक इलाज कराना पड़ता है।
बच्चों और किशोरों में तीसरे प्रकार की गठिया स्पॉन्डिलोआर्थो पैथी समूह से संबंधित है और यह भी शरीर के रोगप्रतिरोधक तंत्र (इम्यून सिस्टम) में विकार आने से उत्पन्न होती है। आम तौर पर इस प्रकार की गठिया (अर्थराइटिस) में मेरुदंड (स्पाइनल कॉर्ड) और हाथ व पैर के बड़े जोड़ प्रभावित होते हैं। इसमें भी विशेष प्रकार की इम्यूनो-मॉड्यूलेटर दवाओं की आवश्यकता होती है। इस संदर्भ में यह समझ लेना आवश्यक है कि समय से उपयुक्त उपचार न हो सकने के कारण बहुत से बच्चों के जोड़ों में विकृतियां आ जाती है और उनके कूल्हे या घुटने पूर्णतया क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। फलस्वरूप कम उम्र में ही उनका कूल्हा या घुटना प्रत्यारोपण करना पड़ता है।