इसे छूत का बुखार कहा जाता है | यह मारक महामारी के रूप में भी फैलता है | इस रोग का जीवाणु मुंह के रास्ते पेट में चला जाता है और छोटी आंत में गुच्छों के रूप में जम जाता है, जिससे लम्बे समय तक ज्चर बना रहता है, इसीलिए इसे मियादी बुखार या मन्थर ज्वर भी कहा गया है |
शरीर के अधिक थकने, अधिक उपवास करने, गन्दे स्थानों में रहने तथा दूषित मल के सम्पर्क में आने और दूषित पदार्थ खाने से भी यह रोग होता है | बड़ी आंत तथा छोटी आंत को हानि पहुंचती है | तिल्ली और जिगर भी प्रभावित होते हैं | रक्त और लसीका ग्रन्थियों तथा मल-मूत्र में भी इस रोग के जीवाणु मिलते हैं | इसके कारण शरीर में दाह होता है, रोगी भ्रम में पड़ा रहता है, वमन होता है और प्यास लगती है | रोगी की नीद उड़ जाती है, मुंह और जीभ सूखती रहती है | गर्दन, पेट, छाती आदि पर दाने निकल आते हैं |
आन्त्रिक ज्वर के लक्षण Typhoid Fever Ke Lakshan
टायफाइड अथवा आन्त्र ज्वर में आंतों में विकार के साथ लगातार बुखार बना रहता है, तिल्ली बढ़ जाती है | शरीर पर पित्ती भी निकल आती है | छोटी आंत की झिल्ली में सूजन हो जाती है, उसमें घाव हो जाते हैं |
आन्त्रिक ज्वर का उपचार
1. जिन ऋतुओं में इसका प्रकोप अधिक होता है उनमें नियमित रूप से भोजन के पूर्व नीबू का सेवन करने से रोग से बचाव हो जाता है | रोगी को पूर्ण विश्राम करना चाहिए | औषधि के साथ-साथ इस रोग में उचित सेवा-परिचर्या भी आवश्यक है |
2. रोगी के कमरे में पूर्ण शान्ति रहनी चाहिए | अधिक तेज प्रकाश से उसे बचाना चाहिए | रोगी का बिस्तर आरामदायक होना आवश्यक है | रोगी को प्रतिदिन स्पंज करना चाहिए तथा उसके भी कपड़े-बदलने चाहिए और ऐसा उपाय करना चाहिए उससे शैयाव्रण (Bed-sores) न होने पाएं | रोगी को थोड़ा-थोड़ा जल अवश्य पिलाते रहना चाहिए |
3. प्यास तथा दाह अधिक होने पर मौसमी का रस पीने के दिन में एक-दो बार देना चाहिए |
4. दुर्बल व्यक्तियों को प्रोटीन तथा विटामिन का पूरक आहार देना चाहिए |
5. ज्वर उतारने के लिए शीघ्रता न करें |
6. हृदय, मस्तिष्क तथा आंतों की सुरक्षा पर ध्यान दें |
7. ज्चर के द्वितीय सप्ताह में मलावरोध की प्रवृत्ति रहती है, अतः ग्लिसरीन द्वारा एनिमा दिया जा सकता है |
8. छेने का पानी पिलाने से भी मल की गांठे साफ हो जाती हैं |
9. रोगी के लिए दूध सर्वोत्तम आहार है | यदि दूध न पच पाए तो फटे दूध का पानी देना चाहिए |
10. रोगी को समय-समय पर उबालकर ठण्डा किया हुआ जल ग्लूकोज में मिलाकर देना चाहिए | चतुर्थ सप्ताह में धीरे-धीरे दूध की मात्रा बढ़ानी चाहिए |
11. साबूदाना आदि का सेवन किया जा सकता है |
12. रोगी के लिए संतरे का सेवन भी लाभकारी है |
13. रोगमुक्त हो जाने के बाद मूंग की दाल का पानी देना चाहिए | साथ में परवल भी दिया जा सकता है |
14. दस्त हो रहें हों तो उसे रोकने के लिए चिकित्सा करें ताकि कमजोरी न हो | यदि मलावरोध हो तो औषधियों का उपयोग किया जा सकता है |
15. जब तक आन्त्र में शोथ और क्षय रहता है तब तक रोगी को मलमूत्र त्याग के लिए उठने नहीं देना चाहिए | लेटे हुए ही मलमूत्र कराना चाहिए | रोग के अन्त में दुर्बलता की ओर विशेष ध्यान रखना चाहिए |
16. जो पौष्टिक आहार सरलता से पच सके वही खाने को दें |
नियमित रूप से प्रातःकाल गुनगुने पानी में कपड़ा भिगोकर रोगी का सारा शरीर धीरे-धीरे पोंछकर साफ करना चाहिए अथवा मुलायम कपड़े से हलके से रगड़ते हुए सफाई करनी चाहिए |