अब डाइबिटिक रेटिनोपैथी से डरने की जरूरत नहीं

जब मधुमेह (डाइबिटीज) का प्रभाव आंख के पर्दे पर पड़ता है, तो आंख के पर्दे पर बनी रक्तवाहिनियों से रक्त या तरल पदार्थ निकलने लगता है, जो पर्दे को नुकसान पहुंचाता है। इसे मधुमेह जनित आंख के पर्दे का रोग (डाइबिटिक रेटिनोपैथी) कहा जाता है।

दो प्रकार

डाइबिटिक रेटिनोपैथी के दो प्रकार होते हैं। पहला, बैकग्राउंड डाइबिटिक रेटिनोपैथी और दूसरा प्रोलिफरेटिव डाइबिटिक रेटिनोपैथी।

बैकग्राउंड डाइबिटिक रेटिनोपैथी में आंख के पर्दे के अंदर रक्तवाहिनियां फूलने लगती हैं और उनसेे रक्त या तरल पदार्थ का रिसाव होने लगता है। इससे पर्दे के टिश्यूज में सूजन आ जाती है और इसमें पीले रंग का पदार्थ (वसा) जमा होने लगता है, जिसे एक्सयूडेट्स कहते हैं। यदि रिसाव होने पर तरल पदार्थ मैक्युला (पर्दे के केंद्र) पर होता है तो यह महीन या सूक्ष्म दृष्टि पर असर डालता है और गंभीर बीमारी का रूप धारण कर लेता है ।

प्रोलिफरेटिव डाइबिटिक रेटिनोपैथी में असामान्य नई रक्त वाहिनियां पर्दे पर ऑप्टिक नर्व (दृष्टि तंत्रिका) या विट्रीअॅस (पर्दे के आगे के रिक्त स्थान) में फैलने लगती हैं। यह नसों का जाल जब फटता है, तब इनसे रक्त निकलने लगता है जो विट्रीअॅस जेली में भर जाता है। इस कारण रोशनी आंख के पर्दे तक नहीं पहुंच पाती। कभी-कभी यह विट्रीअॅस जेली में खिंचाव पैदा कर देती है, जिससे पर्दा पीछे से उखड़ जाता है या अपने स्थान से हट जाता है। इस स्थिति को टै्रक्शनल रेटिनल डिटेचमेंट कहते हैं। यह स्थिति दृष्टि को तो हानि पहुंचाती ही है, पूर्ण अंधापन भी ला सकती है। कभी-कभी तो इसके साथ काला मोतिया (ग्लूकोमा) की समस्या भी पैदा हो जाती है।

डाइबिटिक रेटिनोपैथी के लक्षण

-मैक्युला में सूजन के कारण दृष्टि का कमजोर होना ।

-अचानक मकड़ी के जाल या मच्छर जैसी आकृतियां दिखायी देने लगती हैं।

-यदि रक्तस्राव की मात्रा अधिक होती है, तो पूर्ण अंधापन हो सकता है।

ध्यान दें

कभी-कभी डाइबिटिक रेटिनोपैथी से ग्रस्त व्यक्ति की नजर स्पष्ट व पूर्ण होती है और उसे किसी भी लक्षण का आभास नहीं होता। इसलिए यह अति आवश्यक है कि प्रत्येक मधुमेह रोगी को अपना नेत्र परीक्षण अवश्य करवाना चाहिए जिसमें प्रमुख रूप से पुतली को फैलाकर पर्दे की जांच अति आवश्यक है,क्योंकि यदि रक्तस्राव होने से पहले ही इसका पता लग जाए, तो बचाव संभव है।

जांचें

इस रोग के लिए रेटिना का रंगीन फोटो और फ्लोरेसिन एंजियोग्राफी नामक जांचें करायी जाती हैं।

ऑप्टिकल कोहीरेंस टोमोग्राफी (ओसीटी): यह अत्याधुनिक जांच है जिसके द्वारा पर्दे की भीतरी पर्तों की जांच संभव है।

उपचार

इसके अंतर्गत कई विधियों का इस्तेमाल किया जाता है।

लेजर फोटो कोएगुलेशन: इस विधि में लेजर की किरणों द्वारा आंख की नसों से रक्तस्राव को रोकने और असामान्य नसों को विकसित होने से रोकने के लिए रक्तवाहिनियों को सील कर दिया जाता है। लेजर उपचार द्वारा रक्तस्राव को रोक दिया जाता है, जिससे दृष्टि में सुधार या स्थिरता आती है। लेजर उपचार की आवश्यकता बीमारी की गंभीरता पर निर्भर करती है ।

इंजेक्शन

आजकल कुछ दवाओं का आंख में इंजेक्शंस लगाया जाता है, जो डाइबिटिक रेटिनोपैथी में होने वाले परिवर्तनों को रोकने में सहायक हैं । इन इंजेक्शनों की जरूरत उन स्थितियों में होती है, जहां पर मैक्युला में सूजन ज्यादा होती है या फिर जहां लेजर उपचार के बाद भी रक्तस्राव होता है ।

ऑपरेशन

यदि रक्त भरने से पारदर्शी विट्रीअॅस जेली धुंधली हो जाती है या ट्रैक्शनल रेटिनल डिटेचमेंट हो जाता है, तो लेजर उपचार काम नहीं करता। ऐसी स्थिति में विट्रेक्टॅमी नामक ऑपरेशन की आवश्यकता होती है ।

बचाव

नियमित जांच: डाइबिटिक रेटिनोपैथी का जितनी जल्दी से जल्दी पता चल जाए, उतना अच्छा है। यह तभी संभव है जब आंख की जांच खासकर पर्दे की जांच साल में कम से कम एक बार या नेत्र विशेषज्ञ के सुझाव के अनुसार होती रहे।

डाइबिटीज को कंट्रोल करें: यह आवश्यक है कि डाइबिटिक रेटिनोपैथी का पता लगने के बाद डाइबिटीज को प्रभावी तरीके से नियंत्रित किया जाए। इसके अलावा हाई ब्लड प्रेशर और बढ़े हुए कोलेस्टेरॉल को नियंत्रण में रखना आवश्यक है। लिपिड प्रोफाइल टेस्ट सामान्य रहना चाहिए और अगर गुर्दे से संबंधित बीमारी है, तो उसे डॉक्टर के परामर्श से नियंत्रण में रखना चाहिए।

(डॉ.नौशिर श्रॉफ वरिष्ठ नेत्र विशेषज्ञ, नई दिल्ली)

 

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